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वर्तमान के बच्चों को कला से जोड़ने की आवश्यकता पर चर्चा

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 वर्तमान के बच्चों को कला से जोड़ने की आवश्यकता पर चर्चा : परिचय : कलाकार का शाब्दिक अर्थ ही है कल को आकर देने वाला, तो जो कलाकार कल थे उन्होंने हमारे आज के युग का निर्माण किया और आज का कलाकार कल का निर्माण कर रहा है ऐसे में भविष्य की जब हम बात करते हैं तो आज जो हमारी नवीन फसल है यानी आज के युग के बच्चे, जो आने वाली पीढ़ी के भविष्य निर्माण की क्षमता रखेंगे, उन्हें आज कला से व विशेष रूप से कला के सवेंदनात्मक पहलु से जोड़ना बहुत आवश्यक है।   आवश्यकता के कारण : आधुनिक समाज बहुत तेजी से विकास कर रहा है और जब सामान्य भाषा में हम विकास की बात करते हैं  तो उससे हमारा तात्पर्य भौतिक विकास से होता है, इसमें कोई आपत्ति नहीं है कि भौतिक विकास आज के समाज की आवश्यकता है परन्तु जितनी तेजी से यह भौतिक विकास अपने पैर फैला रहा है उतनी ही तेजी से समाज में मानसिक असंतुलन की स्थिति बढ़ रही है और इस स्थिति को विकास नहीं कहा जा सकता। मन्तव्य यह है कि आर्थिक, मानसिक और आध्यात्मिक उन्नति ही वास्तविकता में किसी भी समाज की वास्तविक उन्नति का द्योतक है। और एक स्वस्थ समाज के निर्माण में कला विशेष रूप से महत्वपूर्ण इक

मधुबनी चित्रकला

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मधुबनी चित्रकला  कहा जाता है कि भारत में 64 कलाएं प्रचलित थीं और उन्हीं में से एक है चित्रकला। भारत के विभिन्न स्थानों पर अलग - अलग चित्रकलाएं प्रचलित हैं और उन्हीं में से एक है बिहार की मधुबनी चित्रकला। और आज  पूरे विश्व में मधुबनी चित्रकला के प्रशंसक हैं। नई दिल्ली में कला और शिल्प संग्रहालय, दरभंगा में चंद्रधारी मिथिला संग्रहालय, बेल्जियम में सेक्रेड आर्ट संग्रहालय, जापान में मिथिला संग्रहालय, नॉर्वे के संग्रहालय में और ऐसे कई महत्वपूर्ण संग्रहालयों में मधुबनी चित्रों के बड़े संग्रह रखे हैं। इसके अलावा, कई आधुनिक कलाकार, दोनों स्व-प्रशिक्षित और किसी अकादमी से शिक्षित, दृश्य भाषा विज्ञान के साथ अपने प्रयोग के रूप में, तथा निर्मल आनंद के लिए, मधुबनी शैली की चित्रकला का अभ्यास करते हैं। विद्वान और उत्साही चित्र संग्रहकर्ता, देशज कला प्रोत्साहक तथा सामान्य जन जिन्हें शायद ही ललित कला की बारीकियों का पता है, लेकिन वे भी मधुबनी चित्रकारी की सादगी और सजीवता का समान रूप से आनंद लेते हैं और मधुबनी चित्रों का संग्रह करते हैं। मधुबनी चित्रकला अथवा मिथिला पेंटिंग मिथिला क्षेत्र जैसे बिहार के दर

मुगल चित्रकला

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 मुगल चित्रकला भारत में मुगल चित्रकला 16वीं और 18वीं शताब्दी के बीच की अवधि का काल है।  यह वह समय था जब मुगलों ने भारत के बड़े हिस्से पर शासन किया था। मुगल चित्रकला का विकास सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में हुआ। मुगल चित्रकला का रूप फारसी और भारतीय शैली का मिश्रण के साथ ही विभिन्न सांस्कृतिक पहलुओं का संयोजन भी है। भारत  की मुगल चित्रकला हुमायूँ के शासनकाल के दौरान विकसित हुई। जब  वह अपने निर्वासन से भारत लौटा तो वह अपने साथ दो फारसी महान कलाकारों अब्दुल समद और मीर सैयद अली को लाया। इन दोनों कलाकारों ने स्थानीय कला कार्यों में अपनी स्थिति दर्ज कराई और धीरे-धीरे मुगल चित्रकला का विकास हुआ। कला की मुगल शैली का सबसे पूर्व उदाहरण ‘तूतीनामा पेंटिंग’ है। ‘टेल्स ऑफ-ए-पैरट जो वर्तमान में कला के क्लीवलैंड संग्रहालय में है। एक और मुगल पेंटिंग है, जिसे ‘प्रिंसेज़ ऑफ द हाउस ऑफ तैमूर’ कहा जाता है। यह शुरुआत की मुगल चित्रकलाओं में से एक है जिसे कई बार फिर से बनाया गया। फारस का प्रसिद्ध चित्रकार विहज़ाद जिसे पूर्व का राफेल कहा जाता है बाबर के समय भारत आया था।  अकबर के समय चित्रकला-  हिमाय

पटना चित्रकला/कंपनी शैली

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 पटना चित्रकला/कंपनी शैली शाहजहां के बाद औरंगजेब ने शाशन की बागडोर अपने हाथ में ली और वह ललित कलाओं के प्रति उदासीन था अतः कलाकारों की पहली शाखा पहाड़ों पर व दूसरी शाखा बंगाल व मुर्शिदाबाद आदि स्थानों पर चली गई। अतः यह शैली मुग़ल व यूरोपिय शैली के मिश्रण से बनी थी। कंपनी शैली को 'पटना चित्रकला' भी कहते हैं एवं यह एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली है। इसे फिरका शैली या बाज़ार शैली के नाम से भी पुकारा जाता है।  तत्कालीन जनसामान्य के आम पहलुओं के चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।  इन चित्रकारों द्वारा चित्र बनाकर ब्रिटेन भी भेजे गये जो आज भी वहां के संग्रहालयों में विद्यमान हैं। यह पुस्तकों को चित्रित करने की शैली है, जो भारत में 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ईस्ट इंडिया कंपनी में काम कर रहे ब्रिटिश लोगों की पसंद के आधार पर विकसित हुई थी। यह शैली सबसे पहले पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में विकसित हुई और बाद में ब्रिटिश व्यापार के अन्य केंद्रों, बनारस (वाराणसी), दिल्ली, लखनऊ व पटना तक पहुंच गई। इस शैली के चित्र काग़ज़ और अभ्रक पर जल रंगों से बनाए जाते थे। पसंदीदा विषयों में रोज़मर्रा के भारतीय ज

जैनशैली/अपभ्रंश शैली

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जैनशैली/अपभ्रंश शैली  7विन से 12वीं शताब्दी तक संपूर्ण भारत को प्रभाव करने वाली शैली में जैन शैली का प्रमुख स्थान है। जैन शैली के नामकरण के विषय में विद्वानों में अनेक मतभेद हैं।  इसे पश्चिम भारतीय शैली या अपभ्रंश शैली आदि नामों से भी पुकारा गया है।  इसके अलावा इसे गुजरात शैली भी कहा गया है।  जैनशैली का प्रथम प्रमाण सित्तनवासन  की गुफा में बनी उन पांच जैनमूर्तियों से प्राप्त होते  हैं  जो 7वीं शताब्दी के पल्लव नरेश महेंद्र वर्मन के शासनकाल में बनी थीं। इस चित्रकला शैली के चित्र श्वेताम्बर जैन शैली से सम्बंधित हैं।  भारतीय चित्रकलाओं में कागज पर की गई  चित्रकारी में  इसका प्रथम स्थान है। जैन चित्रकला शैली में जैन तीर्थंकरों-पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिकार प्राचीन हैं। जैन चित्रकला का नाम जैन ग्रंथो के ऊपर लगी दफ्तियां या लकादी की पटरियां पर भी मिलता है जिसमें  सिमित रेखाओं के द्वारा  भावाभिव्यक्ति की है  तथा आंखों के बड़े सुंदर चित्र बने हैं। जैन कल्पसूत्र की प्रतियां अनेक स्थानों पर बनीं जिसमें 1467 में बनीं कल्पसूत्र की प्रति को सबसे प्रमुख माना गया।

पाल चित्रकला शैली

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पाल चित्रकला शैली पाल  एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली हैं। ९वीं से १२वीं शताब्दी तक बंगाल में पालवंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासक काल में विशेष रूप से विकसित होने वाली चित्रकला पाल शैली थी। पाल शैली की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही हैं। इस शैलीमें पोथी चित्र 22. 25 x 2. 25 इंच के ताड़पत्र पर बनते  थे। इस शैली में चित्र महायान और बज्रयान के ग्रंथों की विषय वास्तु पर बने। पाल कलाकारों को  तांबे की मूर्तियां बनाने में  महारत हासिल थी।  गोपाल नाम के एक सेनानायक ने 730 ईशवी में एक राजवंश की स्थापना की जिसे पाल राजवंश के नाम से जाना गया , इसमें धर्मपाल , देवपाल , नारायणपाल , महिपाल आदि शाशक हुए जिसमे रामपाल अंतिम शाशक थे जिसे हराकर सामंत सेन ने राज्य को अपने अधिकार में कर लिया था।  धर्मपाल व् देवपाल के काल में पाल शैली को विशेष उन्नति हुई।  इस शैली का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध ग्रंथों को प्रतिबिंबित रूप में विशेष उन्नत करना था।  इसमें महायान की आकृतियाँ बनाई गईं जो देखने में एक सामान प्रतिबिंबित होती हैं।  पाल शैली में 24 पोथियाँ चित्रित हैं जिसमें प्रज्ञापरमिता, व् अष्टसंधिका प्रमु

राजस्थानी शैली/राजपूत शैली

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राजस्थानी शैली/राजपूत शैली राजस्थानी शैली के विकास में जैन शैली , अपभ्रंश शैली का प्रभाव रहा किन्तु 17वीं शताब्दी में मुग़ल साम्राज्य का प्रसार होने से राजपूत शैली पर मुग़ल शैली का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है।  राजपूत चित्रशैली का पहला वैज्ञानिक विभाजन आनन्द कुमार स्वामी ने किया था। उन्होंने 1916 में ‘राजपूत पेन्टिंग’ नामक पुस्तक लिखी। उन्होंने राजपूत पेन्टिंग में पहाड़ी चित्रशैली को भी शामिल किया। इस शैली के अन्तर्गत केवल राजस्थान की चित्रकला को ही स्वीकार करते हैं। वस्तुतः राजस्थानी चित्रकला से तात्पर्य उस चित्रकला से है, जो इस प्रान्त की धरोहर है और पूर्व में राजस्थान में प्रचलित थी। राजस्थानी चित्रशैली को भारतीय चित्रकला  शैली के नाम से भी जाना जाता है। राजपूतों  में लोक चित्रकला की समृद्धशाली परम्परा रही है। मुगल काल के अंतिम दिनों में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक राजपूतो की उत्पत्ति हो गई, जिनमें मेवाड़, बूंदी, मालवा आदि मुख्य हैं। इन राज्यों में विशिष्ट प्रकार की चित्रकला शैली का विकास हुआ। इन विभिन्न शैलियों की विशेषताओं के कारण राजस्थानी शैली को   राजपूत शैली का नाम प्रदा

पहाड़ी शैली

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पहाड़ी शैली हिमालयी राज्य 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर 19वीं शताब्दी के मध्य तक महान कलात्मक गतिविधियों का केंद्र बने रहे। पहाड़ी शैली दो सुस्पष्ट भिन्न शैलियों - अत्यधिक गहरे रंगों वाली बसोली शैली तथा रुचिकर एवं भावपूर्ण कांगड़ा शैली से मिलकर बनी है। लघु चित्रकारी  और पुस्तकीय चित्रण की पहाड़ी चित्रकला शैली का विकास भारत के इन राज्यों में स्वतंत्र रूप से हुआ। इसने धर्मनिरपेक्ष एवं दरबारी दृश्यों के चित्रण के अतिरिक्त भागवत पुराण, रामायण, रागमाला श्रृंखला और गीत गोविंद से जुड़ी हुई अनेक कुछ उत्कृष्ट कृतियों और कृतियों के समूहों का चित्रण किया है। गुलेर शैली - पहाड़ी शैली में प्रथम गुलेर शैली का उदय 'हरिपुर' गुलेर राज्य में हुआ था। इस राज्य की स्थापना १४०५ में राजा हरिश्चंद्र ने की थी।  गुलेर के सभी शासकों ने कला को बहुत प्रोत्साहन दिया। इस शैली में व्यक्ति चित्र , दरबारी चित्र, नायिका भेदों का चित्रांकन बहुत सुन्दर और भावपूर्ण हुआ।  पुष्पों से झुकी प्राकृतिक हरियाली के पीछे से छोटे - छोटे भवन दिखाई देते हैं , गोल पहाड़ियों और कदली वृक्षों का अंकन इस शैली की निजी विशेषता है

बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार भाग - 4

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  बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार     भाग - 4 देवी प्रसाद रॉय चौधरी - देवी प्रसाद रॉय चौधरी का जन्म 15 जून 1899 को ब्रिटिश भारत (वर्तमान बांग्लादेश में) के अविभाजित बंगाल के तेज हाट, रंगपुर में हुआ था और उन्होंने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई यहीं से की थी।  देवीप्रसाद रॉय चौधरी का पालनपोषण जमींदार घराने में ठाठ बाट में हुआ ,जमींदार परिवार में जन्मे देवीप्रसाद  राय चौधरी का रुझान बचपन से ही कला की तरफ़ था,उनकी कला प्रतिभा को देखने पर उनके पिता उनको अवनींद्र नाथ टैगोर के पास ले गए। इसके बाद चित्रकला में उनके पहले गुरु बने प्रसिद्ध चित्रकार व कलागुरु अबनिंद्रनाथ टैगोर। वहीँ मूर्तिकला में उनके पहले गुरु थे हीरामणि चौधरी। कलकत्ता के बाद वे आगे के प्रशिक्षण के लिए इटली चले गए। इस अवधि के दौरान उनकी कला पर पश्चिमी प्रभाव की शुरुआत हो चुकी थी। भारत लौटकर वे उस बंगाल स्कूल शैली से जुड़ गए जिसे भारतीय कला के पुनर्जागरण के तौर पर देखा जाता है । 1928 में एक छात्र के तौर पर वे तत्कालीन मद्रास के मद्रास कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स से जुड़े, जहाँ बाद में उन्होंने एक अध्यापक से लेकर विभाग के प्रमुख, उप-प्राचार्य और प

बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार भाग -3

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  बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार     भाग -3 संत चित्रकार क्षितिंद्रनाथ मजूमदार - जब राष्ट्रवाद आंदोलन अपने चरम पर था, बंगाल के कलाकारों ने अबनिंद्रनाथ टैगोर के संरक्षण में भारतीय कला के पुनर्जागरण की दिशा में काम किया। टैगोर ने महसूस किया कि यूरोपीय शैली और माध्यम भारतीय मुहावरों और कलात्मक अभिव्यक्ति के तरीकों पर कब्जा कर रहे थे तब ऐसे में  पूर्व  और भारत के भीतर से प्रेरणा लेकर बंगाल स्कूल के कलाकारों ने अपनी नई पहचान बनाई। ऐसे ही एक कलाकार थे क्षितिंद्रनाथ मजूमदार। मजूमदार का जन्म 31 जुलाई 1891 को शहरी कोलकाता से दूर मुर्शिदाबाद के एक गाँव जगती  में हुआ था, जहाँ उन्होंने बाद में अपना अधिकांश जीवन बिताया। उनके पिता केदारनाथ मजूमदार ने अकेले ही उनका पालन-पोषण किया क्योंकि जब वे बहुत छोटे थे उनकी माँ का निधन हो गया था । एक किशोर के रूप में, उन्होंने अपने पिता के स्वामित्व वाले एक स्थानीय थिएटर समूह में अभिनय किया। उनकी कलात्मक क्षमताओं को पास के एक गांव निमतिता के जमींदार ने पहचाना। उनके परामर्श पर, मजूमदार ने 1905 में कोलकाता के गवर्नमेंट आर्ट कॉलेज में प्रवेश लिया। मजूमदार के

बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार भाग -2

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  बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार     भाग -2 नंदलाल बोस- प्रसिद्ध चित्रकार एवं बंगाल स्कूल के प्रमुख कलाकारों में से एक - नंदलाल बोस का जन्म 3 दिसम्बर 1882 ई. में मुंगेर ज़िला, बिहार में हुआ था। नन्द लाल बोस की बचपन से ही कला में विशेष रूचि थी। उनकी रुचि आरंभ से ही चित्रकला की ओर थी। उन्हें यह प्रेरणा अपनी माँ क्षेत्रमणि देवी से मिट्टी के खिलौने आदि बनाते देखकर मिली। अंत में नंदलाल को कला विद्यालय में भर्ती कराया गया। इस प्रकार 5 वर्ष तक उन्होंने चित्रकला की विधिवत शिक्षा ली। उनके पिता पूर्णचंद्र बोस ऑर्किटेक्ट तथा महाराजा दरभंगा की रियासत के मैनेजर थे।  बिहार में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद 15 साल की आयु में नंदलाल उच्च शिक्षा के लिए बंगाल गए। उस समय बिहार, बंगाल से अलग नहीं था। कला के प्रति बालसुलभ मन का कौतुक उन्हें जन्मभूमि पर ही पैदा हुआ। यहाँ के कुम्भकार ही उनके पहले गुरु थे। बाद में वे बंगाल स्कूल के छात्र बने और उन्होंने 1905 से 1910 के बीच कलकत्ता गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ़ आर्ट में अबनीन्द्ननाथ ठाकुर से कला की शिक्षा ली, इंडियन स्कूल ऑफ़ ओरियंटल आर्ट में अध्यापन किया और

बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार

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बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के प्रमुख चित्रकार भाग - 1 बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट जोकि कलकत्ता में पैदा हुआ और बाद में जिसे शांतिनिकेतन में आधार मिला -  ने एक विशिष्ट भारतीय आधुनिकतावाद को बढ़ावा दिया जो 20 वीं शताब्दी की शुरुआत में ब्रिटिश राज के दौरान पूरे भारत में फला-फूला।  हिंदू कल्पना, स्वदेशी सामग्री ,लोक कला, भारतीय चित्रकला परंपराओं और समकालीन ग्रामीण जीवन के चित्रण का  करके, बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के कलाकारों ने  मानवतावाद को आगे बढ़ाया और भारतीय पहचान, स्वतंत्रता और मुक्ति के लिए एक नई जाग्रति लाए।  पिछले लेख में हमने बंगाल पुनर्जागरण के बारे में जाना अब यहाँ हम इसके कलाकारों को जानेंगे - अबनिंद्रनाथ टैगोर-  बंगाल स्कूल का नाम आते ही जो नाम सबसे पहले याद आता है वह है अबनिंद्रनाथ टैगोर। अबनिंद्रनाथ टैगोर का जन्म 7 अगस्त 1871 को जोरासांको, कलकत्ता, ब्रिटिश भारत में गुणेंद्रनाथ टैगोर और सौदामिनी देवी के यहाँ हुआ था। अबनिंद्रनाथ टैगोर ने कला के पश्चिमी मॉडलों के प्रभाव का मुकाबला करने के लिए मुगल और राजपूत शैलियों का आधुनिकीकरण करने की मांग की। बंगाल स्कूल ऑफ आर्ट के अन्य कलाकारों के साथ, टैगोर न

देवनागिरी की जन्मदात्री ब्राह्मी लिपि

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देवनागिरी की जन्मदात्री ब्राह्मी लिपि देवनागिरी वैदिक भाषा कही जाती है लेकिन इसका उद्भव ब्राह्मी लिपि से माना जाता है। आइये आज के ब्लॉग में हम इससे जुड़े कुछ तथ्यों को जानते हैं - "वेद" या "वैदिक वाङ्मय" के लिए प्रचलित "श्रुति" शब्द के आधार पर अनेक पाश्चात्य पंडितों ने सिद्धांत निकाला है कि "दशोपनिषद्काल " तक निश्चय ही भारत में लेखनविद्या या लिपिकला का अभाव था। वैदिक वाङ्मय का अध्यापन गुरु शिष्य की मुख परंपरा और स्रवण परंपरा से होता था। लिपि का अभाव ही उसका मुख्य कारण था। प्राचीनतम लिपि - प्राचीन भारत की दो लिपियों में "खरोष्ठी" दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी और ब्राह्मी बाएँ से दाएँ। प्राय: यहाँ के पश्चिमोत्तर सीमाप्रदेशों (पंजाब, कश्मीर) में ही प्राचीन काल में खरोष्ठी का प्रचार था। दूसरी लिपि "ब्राह्मी" का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था। भारतीयों की परंपरागत मान्यता के अनुसार संस्कृत भाषा और ब्राह्मीलिपि का प्रवर्तन सृष्टिकर्ता "ब्रह्मा" द्वारा आरंभिक युग में हुआ। ऐसा कहा जाता है कि ब्राह्मी लिपि १0,000 साल पुरानी है लेकिन यह

भारतीय प्रागैतिहासिक गुफा चित्र

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  भारतीय प्रागैतिहासिक गुफा चित्र प्रागैतिहासिक काल का सीधा सा अर्थ है इतिहास से पहले का युग। हमने 'भारतीय प्रागैतिहासिक काल' नाम के ब्लॉग में इस युग की विभिन्न विशेषताओं को जाना है। भारत में पहली बार प्रागैतिहासिक भित्तिचित्रों से,  १८८० ई. में आर्चीबाल्ड कार्लाइल और जॉन कॉकबर्न ने कैमरून (मिर्जापुर) पहाड़ी के चित्रों को उजागर किया। इसके अतिरिक्त मध्य भारत- भारत के पूर्व इतिहास और सांस्कृतिक विरासत से भरा है। इनमें से कुछ आदिवासी कला से परिपूर्ण है । मध्य भारत मोटे तौर पर मध्य प्रदेश, तेलंगाना और उड़ीसा राज्यों का गठन करता है और यह भारत की बड़ी आदिवासी  आबादी को वहन करता है। वे सदियों से मुख्यधारा की आबादी से बड़े पैमाने पर कटे हुए थे। बाद के वैदिक काल के दौरान, यह अवंती, मल्ल और कलिंग जनपद का एक हिस्सा था। बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुसार, मल्ला गणराज्य जनपद  था।  आइये अब हम एक - एक करके विभिन्न शैलाश्रयों के बारे में एवं उनकी विशेषताओं के बारे में जानते है - मध्य प्रदेश- भीमबेटका- * भीमबेटका रॉक आश्रयों पर गुफा चित्र मध्य भारत में मध्य प्रदेश राज्य में एक पुरातात्विक स्थल है। *

भारतीय प्रागैतिहासिक काल

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भारतीय प्रागैतिहासिक काल सरल शब्दों में प्रागैतिहासिक का अर्थ है कि इतिहास से पूर्व का समय। प्रागैतिहासिक कला में इतिहास से पूर्व के औजार , शैलचित्र या शैलोत्कीर्ण और धातु, हाथी दाँत एवं पथ्थर से बनी मूर्तियां , गहने एवं घरेलु काम के अन्य सामान आदि सम्मिलित हैं।   प्रागैतिहासिक काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - १-पुरापाषाण काल (Paleolithic Era)  २- मध्यपाषाण काल (Mesolithic Era) ३- नवपाषाण काल (Neolithic Era) कहीं कहीं ताम्र युग (Chalcolithic Era) को भिन्न रूप से या कहीं कहीं नवपाषाण के हिस्से के रूप में भी व्यक्त किया जाता है।  १-पुरापाषाण काल (Paleolithic Era)- * भारत में पुरापाषाण युग ३00,000 ईसा पूर्व – ८000 ईसा पूर्व का  माना जाता है।  * भारत में पुरापाषाण काल हिमयुग में विकसित हुआ। * भारत में मानव अस्तित्व के शुरुआती निशान ३00,000 ईसा पूर्व थे। * इस युग के लोग मुख्यतः शिकार पर निर्भर रहते थे और जंगली फलों और सब्जियों का करते थे  क्यों कि इस युग में कृषि का विकास नहीं हुआ था।  * इस अवधि के दौरान मनुष्य खुरदरे पत्थरों के उपकरणों का इस्तेमाल किया करता था और गुफाओं में र